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"पुराने रास्ते, पुरानी गलियाँ ! "


सुबह उठता हूँ तो सोंचता हूँ!
आज नए रास्तों पे चलूँगा,
अपनी मंजिल को मैं पा लूँगा !

निकलते ही बाहर पुरानी गलियाँ
भर लेती हैं आगोश में,
चल पड़ता हूँ फिर 
उन्हीं पुराने रास्तों पर !

मेरे कदम खुद ही,
 कर देतें हैं रुख,
उन्हीं चिर-परिचित 
रास्तों की तरफ!
फिर भटक जाता हूँ,
अपनी एक नई मंजिल के रास्तों से !

ये भटकाव और परिचय की आदत,
दोनों ही मुझे,
मेरी मंजिल से वंचित किये हैं !

न जाने वह सुबह कब होगी,
जब मैं चल पडूंगा,
अपनी उस मंजिल की ओर!
और पा लूँगा अपनी
उस वंचिता मंजिल को !! 

टिप्पणियाँ

  1. साहस ... से ही सब कुछ संभव है ... कविता इस इंगित कारती है ... मेरे ब्लॉग पर आये

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