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सितंबर, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

प्रतीक्षा

अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, अभी तो  बीते हैं  कुछ ही बरस, कुछ भी तो नहीं  हुआ है नीरस! खुला ही  रहने दो  इस घर का यह दर.....! अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, हर- आहट  पर, चौंक उठती, रह-रह कर  कहता  क्षण धीरज धर, भ्रम से  न मन भर , कहाँ टूटी है सावन की सब्र.....! अभी-अभी  तो वे गये हैं  आने को कह कर, अभी तो  ऑंखें ही  पथराई हैं, कहाँ  अंतिम घड़ी  आयी है , अभी  प्रलय की घटा कहाँ   छाई है,  देखूँगी मैं अभी  उन्हें नयन भर....!

अस्तित्व

थक चुकी है  अब धरती; जीवन का भार ढोते -ढोते! बिखर जाना चाहती है  टूट कर, होना चाहती है विलीन  आकाश गंगा में; पुनः अपने अस्तित्व के लिए! बस प्रतीक्षा है  इसको उस "asteroid" का  जो अनंत से आ रहा है लिए एक विनाश  और पुनर्निर्माण के  प्रारम्भ का नया सोपान! ऐसे ही कितने  होते रहते है विनाश; और सृजन की प्रक्रिया चलती रहती है अनवरत! और यह "black hole" बनता रहता है, अनंत आकाश गंगाएं !

.................आदत सी हो गयी !

उल्फत -ए-रुसवाई  में  जो  मिली  जुदाई , तन्हाई  में  जीने  की  आदत  सी  हो  गयी ...............! गुजरे  हैं  जिन्दगी  के  उस  मुकाम  से  , हर  गम  पीने  की  आदत  सी  हो  गयी ..................! अब  तो  बस  दिए  हुए  उन  जख्मों  को , यादों  में  सीने  की  आदत  सी  हो  गयी .................! खुद  मेरी  मंजिल  मालूम  नहीं  मुझे , भीड़  में  खो  जाने  की  आदत  सी  हो  गयी ............! ये  ज़िंदगी  तो  अब  मुकद्दर  बन  गयी , सजा -ए - मौत  पाने  की  आदत  सी  हो  गयी . .......! सैयाद  तेरा  दाम  कितना  ही  नाजुक  हो , इस  में  फडफड़ाने   की  आदत  सी  हो  गयी ...........! उल्फत -ए-रुसवाई में जो मिली जुदाई , तन्हाई में जीने की आदत सी हो गयी ....... ........ .!

टूटा जो ख़्वाब इकरार करते-करते

एक मुद्दत से प्यासी थीं नजरें, रात गुज़र गयी दीदार करते-करते! लफ्ज़ मचलते ही रहे लबों पे; टूट गयी सब्र इजहार  करते- करते! शब- ए- फुरकत में सिमट गये लम्हे; उभरे जो ज़ख्म ऐतबार  करते- करते! रूह से इक आह सी निकल गयी; टूटा जो ख़्वाब इकरार  करते- करते! एक मुद्दत से प्यासी थीं नजरें, रात गुज़र गयी दीदार करते-करते!

कृत्यांत

लक्ष्य विहीन पथ पर; भ्रमित गतिज है यह जीवन! न स्थायित्व न ही आलम्बन दृढ़; नीरवता और भी  गह्वर हो रही है! जीवन- लक्ष्य में भटकाव है! सांसों की गतिशीलता जीवन लक्षण है, लक्ष्य नही! सृजेयता की आशाओं को  व्यर्थ न करो! तुम्हीं तो कृत्यांत हो  इस सृजन बिंदु के!

क्यूं हुआ मेरा जन्म!

क्यूं हुआ मेरा जन्म , क्या था मेरा अभिशाप, किस कर्म फल का यह प्रायश्चित , जिसे मैं घुट-घुट कर , मर-मर कर जी रही हूँ ?? घर -बाहर हर जगह , यह महा विभेद! 'नारी उत्थान ' अधिकारों की समानता , कितना मृदु -तीक्ष्ण व्यंग्य , नारी के द्वारा ही , नारी को अभिशापित करने की क्रूर प्रथा!! धन्य है वह (नारी) जिसे मार दिया गया, जन्म से पहले ही , जिसे उबार दिया गया ! रचा गया फिर एक नया सिद्धांत भ्रूण हत्या को , संवैधानिक पाप करार दिया गया ! वाह ऱी सभ्यता! तू और मैं दोनों में कितनी समानता है ? दोनों की हत्याएं हो रही हैं , और मूक होकर हम रो रही हैं , क्योंकि हमारा "जेंडर" एक ही तो है!

अय, अमरते !

अय, अमरते तू ! क्यों कर लुभाती है ? इन चिर श्रमित , नीरस प्राणों को झकझोर हिलाती है! मृत्यु के गह्वर रहस्य से, क्षण भर को ही भिग्य तो होने दे! अनंत के सास्वत लक्ष्य से, इस अत्न को , विज्ञ तो होने दे ! निर्वाण के अनसुलझे चिर रहस्य को क्यों अब और उलझाती है ? अय, अमरते तू ! क्यों कर लुभाती है ?

होना कत्ल-ए-आम है!

लोग यूँ ही अंगुलियाँ नही उठाते ; तेरे  चर्चों   में  मेरा भी नाम है! एक  तेरा ही मुजरिम रहा मैं, जमाना तो बेवजह बदनाम है! गुनाह खुद ही कर बैठे थे खुद से, ये तो फैला हुआ तेरा ही दाम है! कबूल है हर एक सजा भी अब, बचना क्या- होना कत्ल-ए-आम है!

अलफ़ाज़ अपने जख्म दिखाने लगे!

इस दौर में किसका करें ऐतबार; जब अपने ही आजमाने लगे! भरोसा तो गैरों का भी था बहुत; अब बेगाने हक जताने लगे! हर कोई तो है गम जदा यहाँ पर; कौन किसे दास्ताँ सुनाने लगे! लफ्जों को जो हम बयाँ करने चले; अलफ़ाज़ अपने जख्म दिखाने लगे! रूठ जाएगी एक दिन ये जिन्दगी, हिसाब सांसों का लगाने लगे!

परिवर्तन

चिड़िया के चूजे  जब चहचहाते  थे उनदिनों पेड़ पर; कोई गोरैया चुन लेती थी अपने हिस्से के चावल! और तिलोरियों की लड़ाईयां  देती थीं संकेत बारिश आने का! पुराना बरगद जो  हुआ करता था अनगिनत पक्षियों का बसेरा! अब चिह्न भी नहीं रह गये  अवशेष जो इनके होने का  प्रमाण दे सकें! हाँ इन पेड़ों की जगह लेली हैं कुछ सरकारी इमारतों ने ! जहाँ कभी-कभी भीड़ इकट्ठी होती हैं दाने-दाने की लड़ाईयों के लिए; जिन पर  सरकार ने पाबंदी लगा दी है  अब कोई दो दानों से अधिक नहीं खायेगा; और जिसको खाना होता है वो बन जाता है खुद सरकार!

तिमिर आज पूनम को पी गया !!

आह !ये कैसा  हृदयाघात ; चुभ रही न जाने  कौन  सी ये रात , मौन है काल कर रहा प्रत्याघात ! आज मृगांक भी  पूर्णिमा को  अमावस जी गया  तिमिर आज  पूनम को पी गया !! ऊषा पूर्व द्युति आछिन्न  नक्षत्र सी, हो रही  निमीलित यह किरण भी  आशा की !  सोंच कर परिणाम, समय  पूर्व आज; छिप कहीं आज  दिनकर भी गया!  तिमिर आज पूनम को पी गया !! आएगा वह प्रद्योतन हरेगा त्रान; करेगा शशांक को निष्कलंक वह अत्न! जाने कहाँ आज वह प्राची का वीर भी गया ! तिमिर आज पूनम को पी गया !!

प्रयाश्चित!

तुम्हारा वह लाल गुलाब; आज भी उसी किताब में रखा है, पर उसकी हर एक पांखुरी और अधर-पत्र; सूखकर जर्जर और क्षीर्ण हो गये हैं! तुम्हारे उस अप्रतिम उपहार को; क्षीर्ण होने से न बचा सका ; और तुम्हारे वो अव्यक्त उदगार, आज भी मेरे लिए उतने ही रहस्य-पूर्ण बने हैं! क्योंकि मूक समर्पण की भाषा मैं समझ न सका था; और उस भूल के प्रयाश्चित में मैं और तुम्हारा लाल गुलाब दोनों ही रंगहीन हो गये !

नया सवेरा !

आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा लेकर! दूर कर निराशा की तमीशा; उपजाओ आशा! कैसी चिंता, बीते कल की; बीत गया वह क्षण; गुजर गया तम विवर ! आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर! हो चिन्तन; न हो चिंता जीवन की! तज दो निज व्यथा का व्योमोहन! धृ दो पग अब कर्म पथ पर! आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर! व्यर्थ भ्रम  उर में भर,  विचलित करते  तुम्हे शून्य- शिखर! होकर उर्जस्वित, प्रत्यक्ष का वरण कर  आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर!  

दफन रहने दो गुजरे कल को..........

दफन रहने दो गुजरे कल को; भरने में जख्म एक जमाना लगता है ! सुनते-सुनते एक मुद्दत हुयी, उसका नाम तो अब एक फसाना लगता है! अरसे बाद जो आईना देखा, खुद का ही चेहरा अब अनजाना लगता है! चंद सांसों का लिहाज़ भर है, मौत का आना भी एक बहाना लगता है!  दफन रहने दो गुजरे कल को; भरने में जख्म एक जमाना लगता है !

बहुत दिनों के बाद,

बहुत दिनों के बाद, आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! फैला था कुहरा  अति घनघोर, था चतुर्दिश  शीत लहर का शोर , कुहासे के छटने पर , सूरज ने ऑंखें खोली है .... बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! शिशिर रातों के  हिम पाटों में  शीत से व्याकुल हो,  तप-तप टपकती  जल की बूंदों से  निशा में आकुल हो; हमसे आज करती  प्रकृति भी यूँ कुछ  ठिठोली है............ बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! देख कर जलद उड़ते गगन में आम्र कुंजों में मग्न हो, नाच उठे मयूरी ! सितारों जड़ी ओधनी  ओढ़ के धरा पर  आयी  हो शाम सिंदूरी ! मानो  शृंगारित   हो  नव वधू प्रिय मिलन को चली है! बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! पौधों पर नव कलियाँ  खिल-खिल कर झूम रही , सरसों की अमराई में तितलियाँ फूलों को चूम रही; मानो प्रकृति ने आज धरा पर  पीली चूनर डाली है! बहुत दिनों के बाद , आज मेरे भी आंगन में  धूप खिली है! नभ में गूँज रहा विहगों का कलरव,  खिला हुवा अम

अंत हीन यात्रा-२

हर वो रास्ता  जिस पर कदम बढ़ाता हूँ ; आगे ही वह  बढ़ जाता है ! सुबह से चलकर  सूरज शाम तक थक कर  क्षितिज के पार ओझल हो जाता है!! रात के साये में  खिसकते-खिसकते चाँद भी, यात्रा में असमर्थ हो जाता है!! पर मेरी आकांक्षा लक्ष्य-पूर्व विराम नही लेने देतीं! और मैं बस चलता ही जाता हूँ !

अर्थ हीन होता सृजेता का सृजन ,

१- श्रृंगार शून्य होती सुषमा  संशय हीन होता  यह जग , अन्तर्गगन में  न विचरण करते  विचार चेतन के विहग ; कल्पना हीन होता यह मन ! यदि होते न लोचन ! २- न दीनता प्रति  उर में उमड़ती दया, न जन्मती करुणा उठता न भाव कोई, क्लांत होता न अत्न, देख मानव की तृष्णा ! न विछिप्त होता अंतर्मन , यदि होते न लोचन ! ३- न कोई कहता , प्रतीक्षा में पथराई आँखें , न कोई दिवा स्वप्न देखता , न होता कोई,  जीवन में अपना - पराया , न किसी को दृष्टिहीन कहता ! भावना शून्य होते जड़-चेतन , यदि होते न लोचन ! ४-विटप सम  होता मानव जीवन  अर्थ हीन होता कर्म, उदरपूर्ति  हेतु होते व्यसन , पर न होता कोई मर्म! कहाँ होता चिन्तन - मनन , यदि होते न लोचन ! ५-देख पर सुख, न होती ईर्ष्या , न उपजता कोई विषाद, रंग - हीन , स्वप्न- हीन  होता जीवन , न होता आपस में  कोई विवाद! हर्ष-द्वेष रहित होता निश्छल मन , यदि होते न लोचन ! ६- न मानव करता, मानवता पर अत्याचार, पुष्प-प्रस्तर का मात्र ,  होता मृदुल-अश्मर प्रहार, दिवस निशा का बोध , कराता मा

अनंत: -"अतीत" के अंश

शून्य क्षितिज से लौट स्मृति की सुर लहरी, मस्तक में रह-रह कर है फिरती ! जीर्ण जर्जर इस पंजर को कर तरंगित , व्यथित अंतस में वेदना है भरती  !! स्मृति की चिर सुर लहरी में, उद्वेलित होता अन्तःस्थल ! जीवन पथ से श्रांत पंथ को; कर देती व्यथित विकल ! क्षणिक ही था वह मिलन, पर  जीवन तो है चिर महा विछ्लन! वेदना बेधती इस विह्वल को , है व्यथित अंश,-हेतु  पूर्ण मिलन !! अनंत से होकर त्यक्त अत्क, तृष्णाप्त  हो गया कृतिका के गुंठन में! कर विस्मृत उस परम को , होकर पथ भ्रमित अवगुंठन में !! है खोजता उस परम तत्व को, जिससे पूरित है सम्पूर्ण जगत! परम-पूर्ण का है तू भी पूरक, था  वही  जो, है आगत-विगत!! कर विस्मृत अनंत को तुने, जीवन पथ पर तम दिया प्रसार! व्यर्थ की व्यथा से आकुल हुआ, होकर भ्रमित कर जीवन निःसार! कृतिका का बंधन है क्लिष्ट पर, जीवन का लक्ष्य न कर विस्मृत ! यह तो भ्रमित करेगी कृत्या से, होकर दृढ, निज को कर स्मृत !! जीवन प्रहरण के प्रांगण में, कर्म ही चिर श्री दे पायेगा! होकर कर्म पथ से विचलित, लक्ष्य विहीन रह जायेगा!! 

अंत हीन यात्रा

घिसटते  हुए पैरों में पड़े छाले; और अंत हीन  ये उलझे हुए रास्ते! थकी हुयी जिन्दगी और बोझिल सांसें, नहीं थकती तो  जिजीविषा और न खत्म होने वाली  चिर आकांक्षा ! सभी गतिमान हैं  अनंत की ओर अनंत काल के लिए ! अंत हीन यात्रा पर !

शब्दों की भूख

पेट की भूख को  शब्द देने में मैं खुद को  असफल पाता हूँ ! एक पुरानी थाली, जो खाली है, सदियों से; आज भी  उसकी रिक्तता को शब्द देने में  मैं खुद को  असफल पाता हूँ ! भूख कभी नहीं मरती; मर जाता है  भूख से पीड़ित आदमी! और उसकी व्यथा को  व्यक्त करने की छटपटाहट में, जिन्दा रहते है शब्द  जिन्हें कोई नहीं मार सकता !

जब से पैदा होने लगे सिक्के!

पहले बोता था  गेहूं और  पैदा करता था गेहूं आदमी! जिससे पलता था यह आदमी !! भूल से  न जाने कैसे; बो गये कुछ  सिक्के एक दिन, फिर क्या था- गेहूं की जगह  जमीन  ने शुरू कर दिए पैदा करने सिक्के! अब नही उगती  गेहूं की वह फसल ! और भूखों मरने लगा  यह आदमी ! जब से  पैदा होने लगे सिक्के!

पुनर्निर्माण !

वो आखिरी चट्टान; जिस पर तुम खड़े हो, और तुमने जिस हिम्मत से हिमालय को चुनौती दी है; पर अब वो चट्टान भी अपने  जनक  से विरोध का साहस नहीं जुटा पा रही है! और! यह जल प्लावन भी  तुम्हें अब नव सृष्टि का  पुनर्निमाण नहीं करने देगा; क्योंकि तुम न तो मनु हो, और न ही कोई श्रृद्धा  तुम्हें सम्बल देने आएगी! हाँ! इड़ा अवश्य तुम्हारे साथ है, जो सृजन पथ पर , तुम्हारा मार्ग दर्शन  करेगी! पर क्या  पुनर्निर्माण  सम्भव कर सकोगे!!

अन्तर्गगन: किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ?

अन्तर्गगन: किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ? : किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ? स्मृतियों में क्यों, हो रहे विह्वल , किस हेतु उन्मीलित, हैं ये अविरल / स्पंदन हीन हृदय , औ नीरद अयन किसे ढूं...

विभ्रम

स्वप्न लोक से आकर तुम; मेरी सुप्त तृषा जगा जाते हो! स्मृति से तुम हृद तंत्री के; आछिन्न तार बजा जाते हो!! कर प्रखर व्यतीत क्षणों से, सोती बेसुध पीड़ा को ! शून्य हृदय को  कर  स्वर प्लावित; कर प्रखर वेदन क्रीडा को ! जीवन संशय के विस्मय से; क्षण-क्षण होता व्योमोहित ! पथ पर पग देते ही स्मृति, कर देती अंतस को व्यथित ! द्युति आछिन्न हुए सब; नक्षत्र गण भी निबड़े तम में! नहीं प्रतिभास दीखता , है  अब जीवन के सरगम में! हर क्षण डसने को तैयार खड़ी, श्वास -श्वास पर काल व्याली! विवृत है तम का अवगुंठन यहाँ; ज्यों प्रलय काल की निशा काली! नहीं बजती अब जीवन में; सप्त स्वरों की राग लहरी ! कर्म कृपाण हुयी गति मंद, अनिश्चित वेदना सी ठहरी ! अतीत का उपालम्भ कैसा, त्यक्त कर व्यर्थ चिन्तन ! भ्रम से न बन अपभ्रंश तू; यह सब है प्रत्यक्ष मंथन ! व्यर्थ भ्रम है जीवन-मरण, कर तू निज पथ कर्म वरण! बना स्यन्दन यह मानव तन  हो पूर्ण लक्ष्य पथ संवरण !

" ये दीवारें !

सदियों से खड़ी, ये घर-घर की  दीवारें; सागर में बहती नाव की नहीं हैं पतवारें! बहुत सा लादे हैं  बोझा ये  दीवारें! ये भी कुछ हमसे अब कहने वाली हैं, मेरे घर की  दीवारें; अब ढहने वाली हैं !! जोड़-जोड़ कर तोड़-तोड़ कर बनाया; हमने अपने आलय! कुछ तो बने घर; कुछ को भवन बनाया, और कहीं पर देवालय!! ये जोड़-तोड़ अब न सहने वाली हैं, मेरे घर की  दीवारें; अब ढहने वाली हैं !! घर और देवालय की बात ठीक पर तुमने बना डाले मदिरालय! बना डाले द्यूत गृह  और  न जाने कितने बना दिए वैश्यालय !! मूक खड़ी होकर; अब न ये रहने वाली हैं,  मेरे घर की  दीवारें; अब ढहने वाली हैं !! हाय मानव ! खोकर मानवता  तू मानव कहलाता है! पहले निर्माण फिर भीषण प्रहार; तुझे करना भाता है!! यह निर्मम प्रहार; अब न सहने वाली हैं, मेरे घर की  दीवारें; अब ढहने वाली हैं !!

सृजन

चाहे जितनी तीव्र चलें ये आंधियां; उखाड़ सकती है तरु और विटप, नहीं मोड़ सकती राह सृजन की! चाहे जितने आयें तीव्र बवंडर; मिटा सकते हैं बलूकाकृतियाँ, नहीं मिटा सकते भावना अर्जन की ! चाहे कितने  ही जोड़ लो तुम अध्याय इतिहास में प्रलय के, फैला लो सारी वृत्तियाँ वर्जन की! चाहे कैसे भी बना लो तुम; नये-नए तरीके नित विलय के, नहीं रोक सकते राह सृजन की !!