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शेष

तुम नही हो  तो भी तुम  मेरे अंदर हो, सब कुछ लेकर  चले गये पर  कुछ शेष रहा  मेरे अंदर तुम्हारा  उस शेष को  न लेजा सके तुम  क्योंकि वह शेष  मेरा नहीं तुम्हारा था ! तुम्हारा होना या न होना  नहीं महसूसता अब  और यह शेष तुम्हारे  अस्तित्व की स्मृति नहीं मिटने देता है !

भिक्षुक

लड़खड़ाते   कदमों से, लिपटा हुआ चिथड़ों से, दुर्बल तन, शिथिल मन; लिए हाँथ में भिक्षा का प्याला ! वह देखो भिक्षुक सभय, पथ पर चला आ रहा है/ क्षुधा सालती उदर को, भटक रहा वह दर-दर को, सभ्य समाज का वह बिम्ब; जिसमें उसने जीवन ढाला, खोकर मान-अभिमान, पथ पर चला आ रहा है/ हर प्राणी लगता दानी , पर कौन सुने उसकी कहानी, तिरिष्कार व घृणा से, जिसने  है उदर को पला ; घुट-घुट कर जीता जीवन, पथ पर चला जा  रहा है/ हाँथ पसारे, दाँत दिखाए, राम रहीम की याद दिलाये; मन को देता  ढा ढस; मुख पर डाले ताला, लिए  निकम्मा का कलंक, पथ पर चला जा  रहा है/

पानी वाला घर :

समूह में विलाप करती स्त्रियों का स्‍वर भले ही एक है उनका रोना एक नहीं... रो रही होती है स्‍त्री अपनी-अपनी वजह से सामूहिक बहाने पर.... कि रोना जो उसने बड़े धैर्य से बचाए रखा, समेटकर रखा अपने तईं... कितने ही मौकों का, इस मौके के लिए...।  बेमौका नहीं रोती स्‍त्री.... मौके तलाशकर रोती है धु्आं हो कि छौंक की तीखी गंध...या स्‍नानघर का टपकता नल...। पानियों से बनी है स्‍त्री बर्फ हो जाए कि भाप पानी बना रहता है भीतर स्‍त्री पानी का घर है और घर स्‍त्री की सीमा....। स्‍त्री पानी को बेघर नहीं कर सकती पानी घर बदलता नहीं....। विलाप.... नदी का किनारों तक आकर लौट जाना है तटबंधों पर लगे मेले बांध लेते हैं उसे याद दिलाते हैं कि- उसका बहना एक उत्‍सव है उसका होना एक मंगल नदी को नदी में ही रहना है पानी को घर में रहना है और घर बंधा रहता है स्‍त्री के होने तक...। घर का आंगन सीमाएं तोड़कर नहीं जाता गली में.... गली नहीं आती कभी पलकों के द्वार हठात खोलकर आंगन तक...। घुटन को न कह पाने की घुटन उसका अतिरिक्‍त हिस्‍सा है... स्‍त्री गली में झांकती है, गलियां सब आखिरी सिरे पर बन्‍द हैं....। ....गली की उस ओर से

मुझे तुम रहने दो यूँ ही मौन !

मुझे तुम  रहने दो  यूँ ही मौन ! कितने प्रश्न  हैं भीतर मेरे, सब तोड़ दिए  वो किये हुए  अनुबंध मेरे तेरे ! किस आधार पर  निराधार करेगा  ये अपराध सारे ! है बेहतर  मेरा मौन ही  रह जाना ! किसको किसने  कबतक किसका  है माना !! फिर सोंच यह  उठता है मन मेरे , किस जीवन में  कितनी हैं  शामें और  कितने है सवेरे !! मुझे तुम  रहने दो  यूँ ही मौन ! कितने प्रश्न  हैं भीतर मेरे, मुझे तुम  रहने दो  यूँ ही मौन ! कितने प्रश्न  हैं भीतर मेरे,

एक और दिन

सुबह की  शबनमी घास  या पक्षियों का कलरव, अधखिली कलियों के  खिलने की आतुरता  सब लीन हो जाते हैं  एक और दिन गुजरने के  प्रयास में ! और फिर  सूरज ओढ़ लेता है  वही चिर पुरानी  तमिषा की चादर, शाम होने तक  कहीं रात उसके  गुनाहों का  हिसाब न मांगने लगे !

धर्म हठ

मैंने भी बादल की  एक बूँद  के इन्तजार में; बिताया है पूरा एक बरस ! फिर मन मार कर धरती की छाती में  धँसा दिया  नुकीला हल ! क्योंकि  मुझे तो निभाना ही था, एक किसान का धर्म ; भले ही नष्ट हो जाय  एक और सभ्यता  अपने विकास के  चरमोत्कर्ष  परिणामों से !

१५ अगस्त -२०१३ : एक और कैलेंडर !

अभी कल ही लगा था कि देश आजाद हो गया है ! भले ही दो टुकड़े  होने के बाद  और "ग़दर" या  'शरणार्थियों' की बदत्तर हालातों से परे, देश ने भी महसूसा था  आज़ादी पन को ! धीरे-धीरे  बीत गये छियासठ बरस चमकती आँखों की  शून्यता में वो सरे  सपने ,  लोकतंत्र की राजनीति की  भेंट चढ़ गये ! अब राजनेता  या  'कार्पोरेट' ही मनाते हैं  आज़ादी का उल्लास! और  किसान का बच्चा  अब भी खड़ा है'  सर झुकाए  यस सर या  हाँ, मालिक ! एक सिवा  उसे नहीं है  आज़ादी बिसलेरी के बचे हुए पानी को  भी पीने की ! ४७ से १३ तक  कुछ बदला है तो  बस एक  "कैलेंडर"

आदमियत से आदमी तो न चुरा !

हँसते हैं लोग तो हँसने दो, खुद से नज़रें तो न चुरा ! कब छुपती है आईने से हकीकत, हकीकत से नजरें तो न चुरा ! हो रहा है ज़ार-ज़ार कफ़न, ताबूत से लाश तो न चुरा ! दुश्वार है जीना एक आदमी का, आदमियत से आदमी तो न चुरा ! मुफलिसी या अमीरी फर्क चश्मे का, भूख से निवाले तो न चुरा !

श्रमिक !

लफ्ज दर लफ्ज  जिन्दगी जीता  कभी धरती के सीने को  फाड कर उगाता जीवन; पहाडों को फोडकर; निकालता नदियाँ । जिसकी पसीने की  हर एक बूंद दर्शन का ग्रन्थ रचती । उसके जीवन का हर गुजरता क्षण ऋचाएं रचता ; हर सभ्यता का निर्माता तिरष्कृत और बहिष्कृत ही रहा सदियों से।

निश्छल प्राण छले गये !

प्रिये ! तुम जब से चले गये; रजनी निज मन को व्यथित कर; थिर अन्तस् को स्वर प्लावित कर  मानो  निश्छल प्राण छले गये ! प्रिये ! तुम जब से चले गये; नहीं  सुध है अब जीवन की, न ही कामना कोई मन की, किंचित  तुम तो भले गये ! प्रिये ! तुम जब से चले गये;

जब से पैदा होने लगे सिक्के !

पहले बोता था  गेहूं और  पैदा करता था गेहूं आदमी! जिससे पलता था यह आदमी !! भूल से  न जाने कैसे; बो गये कुछ  सिक्के एक दिन, फिर क्या था- गेहूं की जगह  जमीन  ने शुरू कर दिए पैदा करने सिक्के! अब नही उगती  गेहूं की वह फसल ! और भूखों मरने लगा  यह आदमी ! जब से  पैदा होने लगे सिक्के!

मेरी पीड़ा !

मेरी  पीड़ा; मुझको ही पी जाने दो , मेरे जीवन की मेरी ये घड़ियाँ मुझको ही जी जाने दो; उन स्वप्निल आशाओं के बिखरन की पीड़ा, तुम क्या जानोगे? मेरे उस सच के सच को तुम क्या मानोगे ? मान भी जाओ, पर मेरा  ही रह जाने दो! मेरी  पीड़ा; मुझको ही पी जाने दो !

समर्पण

तुम्हारा वह लाल गुलाब; आज भी उसी किताब में रखा है, पर उसकी हर एक पांखुरी और अधर-पत्र; सूखकर जर्जर और क्षीर्ण हो गये हैं! तुम्हारे उस अप्रतिम उपहार को; क्षीर्ण होने से न बचा सका ; और तुम्हारे वो अव्यक्त उदगार, आज भी मेरे लिए उतने ही रहस्य-पूर्ण बने हैं! क्योंकि मूक समर्पण की भाषा  मैं समझ न सका था; और उस भूल के प्रयाश्चित में मैं और तुम्हारा लाल गुलाब  दोनों ही रंगहीन हो गये !

नया सवेरा

आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा लेकर! दूर कर निराशा की तमीशा; उपजाओ आशा! कैसी चिंता, बीते कल की; बीत गया वह क्षण; गुजर गया तम विवर ! आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर! हो चिन्तन; न हो चिंता जीवन की! तज दो निज व्यथा का व्योमोहन! धर  दो पग अब कर्म पथ पर! आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर! व्यर्थ भ्रम  उर में भर,  विचलित करते  तुम्हे शून्य- शिखर! होकर उर्जस्वित, प्रत्यक्ष का वरण कर  आज सूरज फिर आया तुम्हारे दरवाजे पर; एक नया सवेरा   लेकर!

किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ?

किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ? स्मृतियों में क्यों, हो रहे विह्वल , किस हेतु उन्मीलित, हैं ये अविरल / स्पंदन हीन हृदय , औ नीरद अयन किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ? अछिन्न श्वासें  ढोकर ये जीवन, भ्रमित भटका  कोलाहल, कानन/ कब मिलेगा मुझे, वह चिर शयन! किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ? श्रांत हो चली अब, ये आहत सांसें , होगा  कब मिलन पूर्ण होंगी आशें! अपूर्ण रहा कुछ शेष , है अपूर्ण मिलन ! किसे ढूंढते हैं, ये सूने नयन ?

लहू के रंग

कलम की स्याही  लाल हो गयी स्याह से; धमनियों का रंग  नीला होता जा रहा है! धरती शोले उगल रही; और आसमान  गर्म लोहा बरसा रहा है; ये सब इंसान के  निर्जीव ह्रदय की  संवेदन हीनता के  परिणाम हैं! घर के चूल्हे में, सिकने वाली रोटियां, अब राजनीतिक मुद्दों पर सेंकी जाती हैं; जिनसे राज नेताओं की भूख और तेज होकर  निगल रही है  गरीब जनता के मुह के निवाले भी! मुट्ठी भर मातृभूमि की मिटटी जो थी कभी माँ तुल्य आज माँ भी बिलख रही है अपने आंचल की  रक्षा के लिए जिसे तार-तार  करता जा रहा है  उसका ही बेटा!

एक सूखी नदी

नदी जो कभी भरी थी यौवन से, सदियों की सभ्यताएं करती थीं अठखेलियाँ  इसकी उर्मियों में; अब  सूख चुकी है पूरी तरह अवशेषित और  लुप्त हो गयी है! हाँ, इसकी तलहटी में बसे  गाँवों को  बाढ़ का खतरा  नहीं है अब; " कर्मांशा"  हार चुकी है! लेकिन  इसके दोनों ओर हरे जंगल और वन्य जीव  भी लुप्त हो गए हैं; समय के साथ  अब किसी  पूर्णिमा या अमावस पर नहीं लगता  जमावड़ा  दूर-दूर  से  आये हुए  जन सैलाबों का; नदी के सूखने पर  नष्ट हो जाती हैं  सदियों की संस्कृति और सूख जाया करती हैं  सभ्यताएं!

गर तू खुद को नींद से जगा दे !

कतरा- कतरा जिन्दगी जीने से बेहतर है  एक पल मुस्कराते हुए  जाँ लुटा दे ! मिल जायेगी ये शोहरत भी धूल में, बेहतर है खुद को वतन पे मिटा दे !  शर्म से झुकना सर का, जिल्लत है, क्यों न मादरे-वतन पे कटा दे ! सभी राहों से पाकीज़ा है कुर्बानियों की, अपना भी कदम एक बढ़ा दे ! बन जाएगी तेरी हस्ती भी यहाँ, गर तू खुद को नींद से जगा दे ! कतरा- कतरा जिन्दगी जीने से बेहतर है  एक पल मुस्कराते हुए  जाँ लुटा दे !

अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं !

क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर  , जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं ! रहबर ने गर्दिश-ए- खाकसार बना दिया, जैसे तूफां के झोकों से दरख्त बर्बाद हुए है ! हर वक्त जो भी वख्त में मिला वो सब, गम-ए- फुरकत में मेरे ही इन्दाद हुए हैं ! चश्म-ए-दीदार की जादूगिरी को क्या कहें, शेख और सूफी भी न इनसे आजाद हुए है ! उजड़े ही हैं चमन यहाँ इश्क-ए-राह पर, कहाँ - कब घरौंदें घास के आबाद हुए हैं ! क्योँ ना सजा लूँ ग़म ए हस्ती अब्तर , जो अशआर मे अश्क-ए-गम इजाद हुए हैं !

क्रंदन !

आह; निकल पड़े, वेदना के स्वर  देख मानव का पतन ! मानव की यह निष्ठुरता, लुप्त प्राय सहिष्णुता; पाषाण भी करता रुदन ! पर पीड़ा पर  परिहास, निज सूत का जननी पर त्रास; धनार्जन हेतु निर्लज्ज प्रयास; कर रही मानवता क्रंदन ! आह; निकल पड़े, वेदना के स्वर  देख मानव का पतन !

! अंतिम लक्ष्य !

लक्ष्य विहीन  किस पथ पर क्लांत ! प्रबाध है तू गतिमान ? किस हेतु कर रहा अन्तस् श्रांत; हो प्रमिलित  व्यर्थ कर रहा श्राम! ओ पथिक! पथ से होकर भ्रांत; तंद्रित हो, रह गया अज्ञान ! भूल गया तू, क्यों बना है कृत्यांत! व्यर्थ न कर क्षण  है लक्ष्य तेरा निर्वाण ! -- 

राही अनजान राहों का !

राहें बता रहीं हैं, कोई गुजरा है  बड़ी शिद्दत से  मंजिल की जुस्तजू में ! कतरे-कतरे की  खारी नमी , आज भी उसकी इन्तजा की हर वो  दास्ताँ बयाँ कर रही है ! सरगोशियाँ काफूर  भले हो गईं हों, गुजरे तूफाँ की  ताशीर अब भी सन्नाटों में सिहरन  बढ़ा रही है ! मंजिल नही वो  एक जंग थी, मुकद्दर से  जिन्दगी की जिसकी आरजू में  धडकने बिकती रहीं  और सांसें चलती रहीं !

"मेरा भारत महान! "

सरकार की विभिन्न  सरकारी योजनायें विकास के लिए नहीं; वरन "टारगेट अचीवमेंट ऑन पेपर" और  अधिकारीयों की  जेबों का टारगेट  अचीव करती हैं! फर्जी प्रोग्राम , सेमीनार और एक्सपोजर विजिट  या तो वास्तविक तौर पर  होती नहीं या तो मात्र पिकनिक और टूर बनकर  मनोरंजन और खाने - पीने का  साधन बनकर रह जाती हैं! हजारों करोड़ रूपये इन  योजनाओं में प्रतिवर्ष  विभिन्न विभागों में  व्यर्थ नष्ट किये जाते हैं! ऐसा नहीं है कि इसके लिए मात्र  सरकारी विभाग ही  जिम्मेवार हैं , जबकि कुछ व्यक्तिगत संस्थाएं भी देश को लूटने का प्रपोजल  सेंक्शन करवाकर  मिलजुल कर  यह लूट संपन्न करवाती हैं ! इन विभागों में प्रमुख हैं स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा; कृषि, उद्यान, परिवहन,  रेल, उद्योग, और भी जितने  विभाग हैं सभी विभागों  कि स्थिति एक-से- एक  सुदृढ़ है इस लूट और  भृष्टाचार कि व्यवस्था में! और हाँ कुछ व्यक्ति विशेष भी व्यक्तिगत लाभ के लिए, इन अधिकारीयों और  विभागों का साथ देते हैं; और लाभान्वित होते है या होना चाहते ह

आम आदमी: " Used To "

देश जल रहा है; लोग झुलस रहे हैं, सरकार और सरकारी  महकमे भ्रष्टाचार में संलिप्त हैं! युवा आधुनिकता की  चकाचौंध में भ्रमित है; मीडिया मुद्दों में  उलझा रही है! शिक्षा व्यवसाय बन गयी  धर्म लोगों को गुमराह  कर रहा  है ; प्रगति और विकास  मानवता और प्रकृति का पतन कर रहें हैं! कोई भी न तो  सुखी है औरन ही संतुष्ट! एक ओर जहाँ समाज  सोंच बदलने की बात करता है  वहीँ दूसरी ओर वह सब  वर्जनाएं तोड़ता जा रहा है ; स्त्री को माँ, बहन और बेटी नहीं, एक भोग की वस्तु बना दिया है!  सिनेमा और साहित्य  सब एक ही ले में  बह रहें हैं! और आम आदमी समझता है इसमें  उसकी क्या गलती है? और उसका क्या लेना - देना है! परन्तु जब तक  आम आदमी "Used To"  रहेगा तब तक  न तो देश बदल सकता है और न ही समाज! अब पानी नाक तक  आ चुका है और  इअससे पहले सिर्फ तुम्हें और  तुम्हें ही डुबा  दे; खड़े हो जाओ और  जहाँ जिस जगह से  खड़े हो चल पड़ो इन सब को बदलने के लिए, क्योंकि जीवन अनंत है! समाज सभ्यता और देश को बचाने के

कुछ तो करना होगा !

दिन भर पूरे शहर की  गंदगी और  कचरा साफ़ करने के बाद; बमुश्किल कमा पाता है दो सौ रुपये! इन रुपयों में चार लोगो का पेट भरना  और झुग्गी का  किराया देना  कितना मुश्किल होता है ; और पब में  चार लोगों की मस्ती का  आठ हजार का बिल भरना कितना आसान !! सरकार  बनाती है  योजनायें और स्लोगन  "पढ़ेगा इंडिया तभी बढ़ेगा इंडिया" पर  योजनायें नेता और  अधिकारियों के  खर्च भर को रह जाती हैं और  स्लोगन ..........................!!!! क्या कभी  कोई ऐसी भी  योजना बनेगी  जब सरकारी  स्कूलों में  'मिड डे मील'  और 'ड्रेस कोड' से  निकल कर "इन" दलितों के कल का  उजाला बनकर  इनका भविष्य  रौशन कर पायेगी, या यूँ ही ????????

कार्ल गर्ल !

जिश्म को जिन्दा रखने के लिए  गुजारनी पडती हैं  उसे रातें "unfamiliar "  जिश्मों के साथ ! कि जिन्दा रख सके  कुछ रिश्ते जो या तो जन्म से मिले  या थोप दिए हैं  समाज ने उस पर ! और वह मजबूर है जीने के लिए इसी समाज में बनकर  कार्ल गर्ल ! 40  का बीमार -अपाहिज पति  68 की बूढी मां और 7  वर्ष की बच्ची  वह  स्वयं 27  बसंत देखे हुए  अभिशापित सुंदर ! इन सब को जिन्दा रखने के लिए  समाज ने मजबूर किया  उसे कार्लगर्ल बनने को  ! ऑफिस का एम् डी और पूरा मेल स्टाफ, सबको बस  एक ही चाह! फिर क्यों वह  यहसब सहती  उसने कर लिया निर्णय  अब वह नही करेगी सहन  और समाज की अवधारणा को  कर दरनिकार  बनाएगी इसको जीने का साधन ! यह कोई शौक नहीं है और न ही कोई  बनना चाहेगी कार्ल गर्ल ! पर जब हर पुरुष ने  उसके जिश्म की  तरफ ही देखा और नोचना चाहा ! फिर वह किस धर्म  और पाप का चिंतन करती ! कम से कम  आज उसकी मां, पति और बच्ची  जीवित तो हैं ! भले ही "स्त्री " मर गयी हो ; इसमें क्या दोष है

जिजीविषा जीवन की !

जीना चाहते हो! क्या जीने की  जिजीविषा  शेष है तुममें  या समयपूर्व  मर चुकी है !! जब तुमें  संवेदनाओं की  अनुभूति ही  नहीं होती तो  फिर जीवन और  मृत्यु में  क्या अंतर शेष है? फिर क्यों जीना  चाहते हो ! पर अफ़सोस  हर कोई जीवन की  जिजीविषा में जीवन को  लक्ष्य हीन बना कर मृत प्राय हो गया है ! न जाने कब  पल-दो-पल का ही  लक्ष्य पूर्ण जीवन  जी पायेगा ये  भ्रमित मनुष्य !

पशु से सामाजिक प्राणी तक !

जन्म तो लिया था, मनुज के रूप में  पर भूख  ने विवश कर दिया, बनने को  पशु से बदत्तर ! आखिर जीवन को जीवित रखने के लिए  कुछ तो करना ही पड़ेगा! शायद यह  मानव और पशु का  वर्गीकरण ही  एक भ्रम ही है; अन्यथा  पशु और मानव में  क्या अंतर है ? या कुछ पशुओं ने  स्वयं को पृथक करने  हेतु  सिद्धांत बनाएं होंगे  पशु से सामाजिक प्राणी बनने के लिए;  जो आज उनकी नस्लों के लिए ही  बाधक बन गये हैं !

जिन्दगी है एक धूप छाँव सी;

जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; पल-पल बदले शहर गाँव सी! कभी मिल जाते मीठे पल, कभी याद आते बीते कल; हंसाती , रुलाती, गुदगुदाती; कभी दुखती है जिन्दगी घाव सी; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; कभी अपने भी पराये हो जाते, कभी पराये भी अपने हो जाते! जश्न मानती है जिन्दगी कभी; तो कभी डगमगाती है नाव सी; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; अनजानी राहों से है गुजरती ; तो कभी ठहराव लाती जिन्दगी! जिन्दगी के हैं कई रंग-रूप: है ये जिन्दगी एक बहाव सी ; जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; कभी सुबह की लाली है तो कभी लगती है  उदास शाम सी; चलते-चलते चली जाती है; यह  तो बस है एक पड़ाव सी, जिन्दगी है एक धूप छाँव सी; पल-पल बदले शहर गाँव सी! --                                                 ?

रेत पर बिखरा प्रेम!

मुझे मालूम है नहीं हो सकती तुम मेरी ! उम्र भर यादों के सहारे, जीने का असफल प्रयास  करोगी तुम! लेकिन घर, समाज और  झूठे सिद्धांतों का  प्रतिरोध करने की  हजार कोशिशों बाद भी  हिम्मत न जुटा पाओगी ! और मै तुम्हारा इन्तजार  करते-करते, आखिरी सांस को  पीछे छोड़ने में लगा हूँ ! यह प्रेम  कितना क्रूर है जो  दो जिंदगियों को  किश्तों में जीने को  मजबूर कर देता है! या शायद: मैं तुम्हारे मिथ्या  प्रेम को यथार्थ  मान कर सब कुछ समर्पित करता चला गया! जिसे तुमने एक  रेत के घरोंदे सा  मानकर स्मृतियों से मिटा दिया !    ? -- 

आह्वान !

तोड़ दो सपनो की दीवारे, मत रोको सृजन के चरण को , फैला दो विश्व के वितान पर, मत टोको वर्जन के वरण को ! जाने कितनी आयेंगी मग में बाधाएँ, कहीं तो  इन  बाधाओं का अंत होगा ही . कौन सका है रोक राह प्रगति की , प्रात रश्मियों के स्वागत का यत्न होगा ही ! प्रलय के विलय से न हो भीत, तृण- तृण  को सृजन से जुड़ने दो नीड़ से निकले नभचर को अभय अम्बर में उड़ने दो, जला कर ज्योति पुंजों को , हटा दो तम के आवरण को , तोड़ दो सपनो की दीवारे, मत रोको सृजन के चरण को!      ?

वक्त कुछ इस तरह बुरा है,

वक्त कुछ इस तरह बुरा है, अपनों को अपना कहना बुरा है! हर वो हवा जो बहारो से गुजरी, हवा का अब ठहरना बुरा है ! धडकनों को होंगी दिक्कतें बहुत, दिल में किसी के रहना बुरा है ! खुद को समझ न पाया कभी , किसी और को समझना बुरा है ! दोस्ती-दुश्मनी की रंज क्या कहें- दोनों में ही जीना -मरना बुरा है! वक्त कुछ इस तरह बुरा है, अपनों को अपना कहना बुरा है!    ?

संवेग संवेदनाओं का !

संवेदनाएं , हो चुकी हैं  चेतना शून्य ! अब ये इंसान  रह गया बनकर  एक हांड-मांस का पुतला भर , और इससे अब  उम्मीदें करना  व्यर्थ है ! यह मात्र  जिन्दा तो है पर इसकी कुछ करने  की क्षमता  लुप्त हो गयी है ! सांसें लेना भर जिन्दा होने के चिह्न नहीं हैं, और भी कुछ जरूरी है  इंसान होने के लिए, जब तक तुम्हारी  संवेदनाएं जीवित नहीं है , तुम जिन्दा कहाँ हो !      ?

क्या हूँ मैं?

मुझे वो पढ़ता रहा  गढ़ता रहा  कभी एलोरा की गुफाओं , कभी पिकासो की मनः स्थितियों में! लेकिन  कभी वो नहीं  बदल सका  अपनी संकुचित  और शंकालु  प्रवृत्ति  और  डसने को  तत्पर रहता है हर क्षण ! और आज तक मैं अनभिज्ञ   ही रही  मेरा  अस्तित्व  और मैं क्या हूँ  इस पुरुष प्रवृत्ति  के लिए !   ?

अंतिम पृष्ठ

कहानी उस रोज की  अब तक पढ़ता आ रहा हूँ; हर दिन एक नया पन्ना, मेरी आँखों में फड़फडाता है ! हर शाम मैं सोंचता हूँ  ये अंतिम पृष्ठ है  उस कहानी का, पर रात आते ही एक नये पन्ने की  उद्विग्नता  पूर्ण  शुरुवात हो जाती है ! मैं फिर से  पढने लग जाता हूँ  उस अधूरी कहानी को  इस जिज्ञासा से  शायद आज यह  अंतिम पृष्ठ होगा!   ?

अहसास!

दूर तक  देखता हूँ, एक तेरा ही  अक्श दिखता है ! हर पल  तेरा ही  अहसास  मेरे अन्तस् में  छाया रहता है ! पर जब  स्वप्न टूटता है  एक ही झटके में  ख्यालों ओर  अहसासों का  बवंडर  न जाने कहाँ  चला जाता है, और यादों का  एक मुस्कुराता हुआ  अहसास  मेरे पास  ठहर जाता  है !   ?

हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ !

हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; तुम करते आशाएं, मिले न मुझसे निराशाएं; करता मैं भी प्रयास पर, इस जग में मैं भी अभिनव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; तुम चाहते मेरे कर्मों में न त्रुटि हो, कैसे करूं कर्म, जिससे तुम्हें भी संतुष्टि हो; फिर भी जीवन में कर्मरत हूँ, तेरा ही तो बांधव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; चल रहा द्वंद्व मेरे भी अंतर भंवर में, दया,द्वेष,प्रेम, हर्ष है , मेरे भी उर में; नहीं मैं सर्वग्य, मैं भी अतिगव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; तुम चाहते जीवन के झंझावातों में सहारा दूं; लहरों की थपेड़ों में, डगमग होती नाव  को किनारा दूं; तुम समझते वट विटप, मै भी पल्लव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; माया प्रपंच से मैं भी व्योमोहित हूँ; समर्पित हूँ पूर्ण पर कामना से लिप्त हूँ; नहीं मैं अमर्त्य मैं भी अवयव हूँ; हे मेरे मानव प्रियवर, मैं भी मानव हूँ; संघर्ष तो जीवन का आलम्बन है' सहिष्णु होना तो मानव का स्वालम्बन है; महाकाल से मैं भी अतिभव हूँ हे मेरे मानव प्रियवर